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Wednesday, May 12, 2021

कोविड संकट:- बेबस लाचार बैंक कर्मी, संवेदनहीन प्रबंधन और गुमशुदा यूनियन ।।

आज हर एक बैंक कर्मी सहमा सहमा सा है, उसके मन में भय है, असुरक्षा का बोध है, बेबसी और लाचारी भी है। कोविड संक्रमण के चलते हो रही मौतों ने सबको स्तब्ध कर दिया है। बैंक कर्मियों की असमायिक मौत की खबरें निरंतर मिल रही हैं।  आज लोगों में विशेषतौर पर बैंक कर्मियों में दहशत का माहौल है। अब सवाल यह उठता है कि क्या इन मौतों को कम नहीं किया जा सकता था? इस बात में कोई दो राय नहीं की इनमें से अधिकांश जिन्दगियां बचाई जा सकती थी परन्तु दुर्भाग्यवश सरकार की उपेक्षा, बैंक प्रबंधन की संवेदनहीनता और उनकी खुद की यूनियन की अनदेखी ने बैंक कर्मियों को एक असहाय बेबस लाचार मूकदर्शक बना डाला है। 


पिछले एक साल में कोविड महामारी के बीच बैंकिंग सेवाएं निर्बाध रूप से जारी रहीं, बैंकों ने खासकर सरकारी बैंको ने ना सिर्फ अपना सामान्य व्यापार किया बल्कि सरकारी योजनाओं को लागू करने में बढ़ चढ़कर भीड़ का सामना किया परन्तु बैंकरों को स्वास्थ्य कर्मियों और पुलिस कर्मियों की तरह अग्रिम पंक्ति के कर्मी (frontline worker) का दर्जा नहीं दिया गया, प्राथमिकता के आधार पर उनका टीकाकरण नहीं किया गया, जबकि निर्विवाद रूप से यह सबको पता है कि स्वास्थ्य कर्मियों के बाद अगर सबसे ज्यादा संक्रमित होने का कहीँ खतरा है तो वे बैंक हैं। यहां सीधे तौर पर नगद का अदान-प्रदान होता है, लोगों के भीड़ का सामना करना पड़ता है जबकि बैंक नोट से संक्रमण का सबसे ज्यादा खतरा है फिर भी सरकार ने बैंक कर्मियों का उपेक्षा कर लाखों बैंकरों के जीवन को जोखिम में डाला है। हजारों बैंकरों की मौत यह कोई सामान्य मौत नहीं है यह परोक्ष रूप से हत्या है।


प्रत्येक बैंक का प्रबंधन और यूनियन दोनों ही इस बात से भलिभांति अवगत है कि बैंको के कार्यशैली और बैंकरों के दिनचर्या के कारण अधिकांश बैंकर मधुमेह और दिल की बीमारी जैसै गंभीर रोगों से ग्रसित है, अगर सर्वेक्षण कराया जाए तो 45 वर्ष से अधिक आयुवर्ग वाले लोग में से तो 70-80 प्रतिशत लोग ऐसे मिलेंगे जो किसी ना किसी बीमारी से ग्रसित है। इन तथ्यों से अवगत होने के बावजूद ना तो बैंक प्रबंधनों और ना ही यूनियनों ने टीकाकरण को लेकर कोई तत्परता दिखाई। बैंक के प्रबंधनों की असंवेदनहीनता और लाचारी को तो फिर भी समझा जा सकता है क्योंकि आज देश में जिस प्रकार की सरकार है उसके सामने किसी का बोलना तो दूर सुझाव देना भी आत्मघाती हो सकता है। जिस सरकार के सामने आरबीआई के गवर्नर लाचार और बेबस समझते हों, उच्चतम  और उच्च न्यायालयों के जजों की न चलती हो भला उसके सामने बैंको के एमडी की क्या हैसियत?


कोविड महामारी के दौरान यूनियनों की भूमिका खासतौर पर UFBU की भूमिका घोर निराशाजनक और गैरजिम्मेदारना रही है। ये यदा कदा पत्र प्रपत्र निकाल रस्म अदायगी करते रहे, किसी भी बड़े नेता ने साहस के साथ आगे आकर बैंक कर्मियों की आवाज पुरजोर तरीके से मुखरित नहीं की, संघर्ष का जज्बा नहीं दिखाया और बैंक कर्मियों को आश्वस्त नहीं किया। 


निःसंदेह स्थानीय स्तर पर यूनियनों के निष्ठवान और समर्पित कार्यकर्ताओं ने उनसे जो बन पड़ा वह किया है और कर रहे हैं पर राष्ट्रीय स्तर पर कार्यरत यूनियनों द्वारा दिशा निर्देशों के अभाव में यह स्थानीय कार्यकर्ता भी अपने आप को असहज और असहाय महसूस कर रहे हैं। अगर UFBU और इसके घटक संगठन चाहते तो आँखें तरेर न केवल  सरकार से बैंक कर्मियों को अग्रिम पंक्ति का वर्कर घोषित करवा लेते बल्कि अब तक प्राथमिकता के आधार पर हर बैंक कर्मी का टीकाकरण भी हो चुका होता, हमारे अनगिनत जिन्दगियां बचाई जा सकती थी तथा आज लाखों बैंकर खुद को इतना असुरक्षित, बेबस और लाचार नहीं समझ रहे होते। आज क्षेत्र अधिकारी (Field Functionaries) सबसे ज्यादा खतरा से जुझ रहे हैं पर उनकी कोई सुध लेने वाला नहीं है, अगर किसी की व्यक्तिगत पहचान है या वह क्षेत्रिय कार्यालय या अन्य उच्च कार्यालयों में पदास्थापित है तो उनका टीकाकरण हो रहा है, शेष का कोई पुरसाहाल या खोज खबर भी नहीं लेने वाला है । सब बस अपना-अपना सोच रहे हैं। 


वैसे तो अब बहुत देर हो चुकी है, UFBU को कोसते रहने और उनसे किसी तरह की आशा करना निरर्थक है। बैंक कर्मियों को अपने हित में मोर्चे से अगुवाई करते हुए एक सख्त कदम उठाना बेहद जरूरी है। यदि शाखा में 100% टीकाकरण नहीं हुआ है तो एक होकर शाखा प्रबंधक के माध्यम से उच्च अधिकारियों और उनके जरिये सरकार को सीधा संदेश भिजवाएं कि अगर शत प्रतिशत  बैंक कर्मियों को टीका नहीं तो बैंकों में काम भी नहीं। उसका कारण यह है कि भले ही सरकार ने 18+ के सभी लोगों के टीकाकरण की घोषणा कर दी हो पर टीकाकरण की गति बेहद धीमी है ऐसे में अगर बैंकरों को प्राथमिकता  नहीं दी गई तो 100% टीकाकरण का लक्ष्य हासिल करते-करते 3-4 साल लग जायेंगे और तब तक हम न जाने कितने साथियों को खो चुके होंगे। आज दूसरी सबसे बड़ी चुनौती है अधिक उम्र और गंभीर बीमारी से ग्रसित अधिकारियों, कर्मचारियों व गर्भवती महिलाओं के अधिकारों के लिए लड़ने की। अपनी अपनी शाखाओं के शाखा प्रबंधकों के माध्यम से ऐसे लोगों के लिए अनिवार्य वर्क फ्राॅम होम की मांग कीजिये। अन्य बैंकों के साथियों से संपर्क कर बैंक कर्मियों के लिए किसी विशेष अस्पताल को बुक करने की संभावना तलाशिये। 


आपके #RIP लिखने मात्र से किसी दिवंगत आत्मा को शांति नहीं मिल जाती, खुद को दिवंगत साथियों की जगह रख कर सोचिये और ऐसा करते वक्त अपने परिवार और नजदीक के लोगों के चेहरे सामने रख कल्पना कीजिये कि आपके न रहने पर उन पर क्या गुजरेगी, वी बैंकर्स में आस्था और विश्वास रखने वाले साथियों से अपील है कि विपदा की इस घडी में अपने आप को निंदा आलोचना से पृथक रखते हुए बैंक कर्मियों को सुरक्षित और स्वस्थ रखने के अभियान की शुरुआत करें, स्थापित यूनियन से विशेष उम्मीद न करें, अपने खुद के संधाधन जुटाने और कोविड संक्रमण के उपचार हेतु आत्म निर्भर बनने की दिशा में अपनी ऊर्जा और शक्ति लगाएं।

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