क्या स्टेट बैंक ऑफ इंडिया के कर्मचारी इतने चिड़चिड़े और कामचोर होते हैं? क्या उन्हें कोई मनोवैज्ञानिक समस्या होती है या उन पर काम का बोझ इतना ज्यादा होता है?
कामचोर शब्द का प्रयोग लोग इश्तेमाल में तब लाते है जब उनको लगता है कि यह आदमी काम करने से मना कर रहा है जो तुरंत कर सकता है पर क्या बैंको के बारे में ऐसी धारणा बना लेना सही है ??
आप SBI की किसी भी शाखा में जाइये , लाइन में 40 से 50 आदमी लगे होंगे , लाइन में लगा हर ग्राहक यही बोलेगा की काउंटर पर बैठा कर्मचारी कामचोर है , धीरे धीरे काम कर रहा है पर क्या आप यह देख रहे है कि 1 ग्राहक पर वो समय कितना ले रहा है , ज्यादा से ज्यादा 30 sec से 1 मिनट ।।
क्या जो स्टाफ 1 मिनट में आपको सर्विसेज दे रहा है वो कामचोर हो सकता है पर आपने कामचोर इसलिए मान लिया क्योंकि आपका नंबर 40 है और वहाँ तक आने में 40 मिनट लगेंगे पर इसमे बैंककर्मचारी की क्या गलती है या शाखा प्रबंधक की क्या गलती है स्टाफ होते तो 3 कॉउंटर चला देता निजी बैंक की तरह तब आपको 10 मिनट में पैसा मिल जाता और आपकी धारणा बदल जाती ।।
इसी प्रकार SBI आज ऐसे तमाम ग्राहको से रूबरू है जो दिन में कई बार मेरा पैसा आया, स्कॉलरशिप आयी वृद्धा वस्था पेंशन , TDS , 15G/H और नई ऑनलाइन समस्या फोनेपे, गूगलेपय वाले ग्राहक बहुतायत में आ रहे है ।। असीमित ग्राहको को एक साथ डील न कर पाना बैंककर्मचारी की योग्यता को कम नही करता पर ग्राहको का नजरिया कामचोर है काम ही नही करना चाहते , हमारे पैसो पर तनख्वाह मिलती है सुना कर 10 बैंककर्मचारी का अकेले काम करने वाले को चले जाते है ।। क्या निजी बैंको में प्रति स्टाफ ग्राहको की संख्या सरकारी बैंको की प्रति स्टाफ ग्राहक संख्या के आस पास है तो मुख्य समस्या स्टाफ की कमी है न कि ये धारणा बना लेना कि स्टाफ बैंककर्मचारी कामचोर है ।।
दरसअल सरकारी बैंकों में छोटे छोटे धनराशि के खाते जैसे वृद्धा अवस्था पेंशन, सरकारी लोगों के पेंशन खाते, बच्चों के स्कॉलर शिप जैसे SC, ST या Miniority के बच्चों को वजीफा, निम्न आयवर्ग के लोगों के जनधन खाते, ठेला रेहड़ी वालो के लोगों के लोन स्वीकृत करना, पशु ऋण, शहरी निम्न या मध्यम आय वर्ग के लोगों को छोटे ऋण देने का अनुउत्पादक कार्य भी करने होते है।
इन लोगों का हर सप्ताह बैलेंस पूछने को आना, छोटी छोटी कैश withdrwal करना, पास बुक की प्रिंट निकलवाना आदि अनुत्पादक कार्य मे बैंक कर्मचारी बहुत व्यस्त रहते है। इन कार्यो में समय वहूत व्यतीत हो जाता है लेकिन बैंक की प्रोडक्टिविटी कुछ भी नही बढ़ती होती है।
ये ऑनलाइन मोबाईल बैंकिंग से दूर वर्ग के लोग या वृद्ध लोग ATM, ऑन लाइन बैंकिंग या ऑन लाइन पास बुक सुविधा का उपयोग करना या तो जानते नही या करने से डरते है। इस कारण ब्रांच में इनके आने से स्टाफ पर दबाब वहूत पड़ता है और काउंटर पर वैठा बाबू कितना भी धैर्यशील हो अपना पारा खो देता है।
इस वजह से सरकारी बैंक में भीड़ भी वहूत होती है और जो बड़े वचत खाते वाले जो जरूरी काम से ही बैंक जाते है वह भी परेशान हो जाते है और इन बाबुओं के बारे में इनके rude होने की धारणा बना लेते है।
बैंकों द्वारा छोटे ऋण भी अधिकतर सरकार के दबाब में दे तो दिए जाते है लेकिन इनकी उगाही में बड़ी परेशानी होती है इसलिये भी बैंक कर्मी ऋण देने में जानभुझ कर देरी करते है।
अतः किसी को सरकारी बैंक के बाबुओं के बारे में आंकलन करना है तो दिन भर उनके कार्य को देखना होगा फिर धारणा बनानी होगी कि बास्तव में उनमें कितना धैर्य है।
Webankers द्वारा कराए पोल से यह साबित हो चुका है कि 60% से ज्यादा शाखाओं में 2 से 3 स्टाफ ही है जो कि ग्रामीण क्षेत्रो में आती है , जहाँ ब्रांच की कनेक्टिविटी के साथ अन्य मूलभूत सुविधाओं का भी अभाव होता है , कई बार बैंक कर्मचारियों को छुट्टियां केवल इसलिए नही मिल पाती क्योकि उनकी अनुपस्थिति में ब्रांच में काम करने वाला दूसरा स्टाफ अप्पोइन्ट ही नही है फिर भी बैंककर्मचारी निर्बाध रूप से अपनी सेवाएं दे रहे है पर सभी ग्राहको को संतुष्ट न कर पाने की एक ही वजह है स्टाफ की कमी , आज से 10 वर्ष पहले स्टाफ की तुलना में आज चौथाई स्टाफ हो गए है पर काम कई गुना बढ़ गया है , हम सलाम करते है ऐसे बैंककर्मचारीयो को जो 10 लोगो का काम अकेले कर रहे है और ग्राहको की शिकायतों के बावजूद सेवाओं में कमी नही ला रहे है ।।
निजी बैंक इन छोटे धनराशि वाले ग्राहकों के कार्यो से मुक्त है और उनके ग्राहक भी अधिकतर पढे लिखे लोग होते है जो अधिकांश कार्य ऑन लाइन कर लेते है इसलिये बैंक वाले इन ग्राहकों का पूरा सहयोग करते है। जिस दिन निजी बैंकों में भी जनधन खाते से या सरकारी योजनाओं के कार्य होने लगेंगे हम उनमें भी यही बीमारी देखने लगेंगे।
जिन लोगों की सरकारी बैंकों में बड़ी बड़ी FD है या लाखो रुपये रोज जमा कराते है यानी जिनके करंट एकाउंट है उनको कभी भी ये सरकारी बैंक वाले निराश नही करते है। क्योंकि उनको पता है कि उनका व्यवसाय यही लोग चलाते है।
सबसे अधिक जनधन खाते PSU में या ग्रामीण बैंकों में ही है, आखिर क्यों निजी बैंक इस सामाजिक दायित्व से दूर है