शाखा पर बंधक ।। बैंको के शाखा प्रबंधकों के पास कर्मचारी न होने से उन्हें पासबुक तक भी छापनी पड़ रही है ।। - We Bankers

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Sunday, February 13, 2022

शाखा पर बंधक ।। बैंको के शाखा प्रबंधकों के पास कर्मचारी न होने से उन्हें पासबुक तक भी छापनी पड़ रही है ।।



शाखा पर बंधक के बारे में कहा जाता है कि स्वर्ग का कर्मचारी बनने से अच्छा है नर्क का ऱाजा बनना। वास्तव में वो गलत नहीं बल्कि यथार्थ है। आज सरकारी बैंकों में शाखा प्रबंधक बनना बेहद जटिल और दुखदायी बनता जा रहा है। हालत इतनी ख़राब है कि कोई स्वेच्छा से ये असाइनमेंट लेना नहीं चाहता है यानि प्रबंधन द्वारा जबर्दस्ती असाइनमेंट थमाया जाता है और कहते हैं कि एकबार अगर आपके ऊपर शाखा प्रबंधक का मुहर लग गया तो वो जल्दी छूटता भी नहीं।


अब सवाल उठता है कि ऐसी हालत क्यूँ पैदा होती है?क्यूँ सुपरमैन वाली स्थिति होती है। वज़ह अधिकांश ब्रांचों में पर्याप्त मैनपावर नहीं होता है। उदाहरण के तौर पर स्केल 2 और 3 की ब्रांचों में मेनेजर के अलावा एक या दो ऑफिसर और एक या 2 क्लर्क होते हैं और भीड़ बेहिसाब। अब सोचिये जिस ब्रांच में 1 या 2  स्टाफ़ काउंटर पर ग्राहक सेवा हेतु हो जिसमे 1 कैश काउंटर में फिर भला अकेला मैनेजर किधर-किधर जायेगा?? वो काउंटर पर बैठे क्लर्क और अफसर का क्यू पास करेगा या केबिन में बैठे लोगों को इंटरटेन करेगा या लोन प्रपोजल मोबि- लाइज करेगा या लंबित प्रोपोजल को खत्म करेगा।


ऊपर से सपोर्ट माँगने जाओ तो प्रबंधन द्वारा सिरे से ख़ारिज कर दिया जाता है और दलील दी जाती है कि बाँकी के अन्य ब्रांचों में भी तो यही स्ट्रेंथ है,वो तो नहीं माँगते,फिर तुम्हें क्यूँ चाहिए। इसी तरह का दलील वो सभी शाखा प्रबंधकों को देकर स्टाफ़ देने की बात को अनसुनी कर देते हैं।लेकिन उन्हें हर पैरामीटर में ग्रोथ चाहिए और आजकल तो हर 15 दिन पर रिव्यु होता। 


आप समझ सकते हैं कि किस कदर प्रताड़ित किया जा रहा है। उनके मानसिक स्थिति का अंदाजा आप इसी से लगा सकते हैं कि बहुतों के अंदर इस नियमित उत्पीड़न से तंग आकर कभी-कभी जॉब छोड़ने का मन भी आता है, लेकिन अफ़सोस पारिवारिक पेट भरने की चिंता हीं तो है, जिसने मजबूर किया है। ये भी नहीं है कि वो काम नहीं करना चाहते हैं।वास्तव में बहुत काम करना चाहते हैं, लेकिन समय तो मिले। जब शाखा में पर्याप्त मैनपावर न हो और सुबह 8 बजे से व्हाट्सअप और मेल के माध्यम से डेटा की रिपोर्टिंग का निर्देश दिया जाय! तो आप कैसे काम पर फोकस कर पाएँगे। कभी-कभी तो ये हाल होता कि स्टाफ़ छुट्टी पर जाय तो 1-2 दिन के लिये भी डेपुटेशन पर स्टाफ़ नहीं मिलता,फिर ब्रांच चलाने के लिये काउंटर पर बैठकर पासबुक भी छापना पड़ता है लेकिन फ़िर भी अपेक्षा की जाती है कि वो सुपरमैन की भांति चौतरफ़ा ग्रोथ करे।


शाखा प्रबंधक बनने के बाद सबसे बड़ी समस्या छुट्टी की होती है। ऐसा प्रतीत होता है कि मानों छुट्टी माँगना अपराध हो गया है और आज़कल तो छुट्टी भी टारगेट ओरिएंटेड हो गया है यानि अगर छुट्टी चाहिए तो टारगेट पूरा करना होगा। वरना 1-1 दिन की जायज़ छुट्टी के लिये भी गिड़गिड़ाना पड़ता है। कार्य की तो कोई सीमा हीं नहीं है। हर चीज़ करना है। व्हाट्सअप पर मिले निर्देश को भी क्रियान्वयन करना है,फ़ोन भी 24*7 उठाना है,ईमेल भी नियमित देखना क्रियान्वयन करना है,केसीसी,स्वंय सहायता समूह,डेयरी लोन जैसे कृषि ऋण, ग्रह रिन, ऑटो लोन एवं MSME ऋण भी बाँटने का फ़रमान सौ फीसदी अनुपालन करना है,अटल पेंशन योजना, बीमा योजना....


जैसे सरकारी योजना में सौ फ़ीसदी टारगेट पूरा करना है।SLBC, DFS, RBI जैसे संस्थाओं के निर्देश को भी 100 % पालन करना है फिर प्रॉफिटेबल बैंकिंग भी करना है और कहीं थोड़ी गलती हुई तो चार्जशीट भी खाना है।

विडंबना कहिये की कहा जाता है कि ब्रांच एक मोबलाइजेशन सेन्टर है। जहाँ ब्रांच मेनेजर को कुछ नही करना है। लोन सैंक्शन के लिये बस प्रोसेसिंग सेंटर को बस लीड भेजना है लेकिन दुर्भाग्य कहिये की कुछ गलत हुआ तो तब भी एकाउंटेबिलिटी पूरी तरह केवल शाखा प्रबंधक की हीं होती है। जब से थर्ड पार्टी प्रोडक्ट बेचने की मुहिम बैंक से शुरू हुई है। तब से और जीना मुहाल हो गया है। महीने में 2-3 लॉगिन दे होते हैं। उसमें हर ब्रांचों को पालिसी बेचना अनिवार्य है। ये भी कहा जाता है कि अगर न बिके तो खुद एक पालिसी खरीद लेना लेकिन किसी हालत में नील रिपोर्टिंग नहीं चाहिए।


जैसे अभी डोर-स्टेप-बैंकिंग लांच हुई है। जिसमें मजबूरी वश स्टाफ़ को खुद एप से आर्डर करना पड़ रहा है,ताकि किसी भी हालत में शून्य न रहे। कुछ हीं दिन हुये टैब बैंकिंग लांच हुई,देने के साथ हीं नियमित 10 खाते खोलने का निर्देश दिया गया। इससे समझ सकते हैं कि क्या हालात हैं। अभी तो हर पखवाड़े में रिव्यु मीटिंग बुलायी जा रही है और उसमें ज़लील किया जाता है। किन कारणों से ग्रोथ नहीं हो रहा है,वो कोई नहीं जानना चाहता। कहीं-कहीं तो मीटिंग के साथ सुदूर ट्रांसफर आर्डर भी निकल जाते। इस डर से कभी-कभी तो अनजाने में गलत लोन भी सैंक्शन हो जाते, जिसके लिये भारी खमियाज़ा भुगतना पड़ता है। कुल मिलाकर देखा जाय तो सरकारी बैंकों में ब्रांच मैनेजर के रूप में हर मोड़ पर काँटे हीं काँटे बिछे हैं लेकिन फ़िर भी बैंकर साथी जिस मजबूती से झेल रहे हैं,वो वाकई अद्भुत और सराहनीय है। अगर प्रबंधन कुछ बदलाव करे तो वो समय दूर नहीं, जब हम निजी बैंकों को हर मोर्चे पर पछाड़ देंगे।जैसे कि:-


◆शाखाओं में पर्याप्त मैनपावर हो।


◆निजी बैंकों की तरह ब्याज़ दरों में ब्रांच-स्तर पर रियायत देने का पावर हो।


◆टेक्नोलॉजी को दुरुस्त किया जाय।


◆लोन डॉक्यूमेंटेशन सरल हो।


◆ब्रांच स्तर में एक कंप्लायंस अधिकारी की तैनाती हो।

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